सुमित्रानंदन पंतः (क) बापू (ख) प्रथम रद्गिम
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला': (क) जागो फिर एक बार (ख) तोड़ती पत्थर
सुभद्रा कुमारी चौहान - प्रभु तुम मेरे मन की जानो
कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’: मैं और मैं
हरिशंकर परसाईः इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर
महादेवी वर्माः सिस्तर का वास्ते
हिन्दी वर्तनी और उसका मानकीकरण
संज्ञाः (व्यक्तिवाचक, जातिवाचक, भाववाचक)
सर्वनामः (पुरूषवाचक, अनिश्चयवाचक, निश्चयवाचक, प्रश्नवाचक,
सम्बन्धबोधक, निजवाचक)
विशेषण: (गुणवाचक, संखयावाचक, परिमाणवाचक, सार्वनामिक विशेषण)
क्रियाः कर्म के अनुसार (सकर्मक, अकर्मक)
विलोम, पर्यायवाची, अनेकार्थक,वाक्यांश के लिए एक शब्द
मुहावरे और लोकोक्ति (राजस्थानी लोकोक्ति सहित) संलग्न सूची के अनुसार
विज्ञापन-स्वरूप और विद्गोषताएँ
विज्ञापन में प्रयुक्त हिन्दी।
संक्षेपण
राजस्थानी लोकोक्तियाँ
बाहर बाबू सूरमा, घर में गीदड़दास।
अर्थ - बाहर जा कर स्वयं की शेखी बघारना लेकिन घर में डरपोक बने रहना।
पाँच सात की लाकड ी, एक जणै को भार।
अर्थ - बोझ को यदि बाँट लिया जाए तो बोझ नहीं रहता, यदि एक पर डाला जाए तो भार बन जाता है।
बाप बड ो ना भय्यौ, सबसे बड ो रूपय्यौ।
अर्थ - आज के समय में कोई भी रिद्गतेदारी महत्व नहीं रखती है, केवल पैसे की ही पूजा होती है।
पूत सपूता क्यूँ धन संचे, पूत कपूता क्यूँ धन संचै।
अर्थ - यदि पुत्र सपूत हो तो धन संचय की कोई आवद्गयकता नहीं है, वह स्वयं कमाकर खा लेगा और यदि पुत्र कुपुत्र हो तो भी धन जोड ने की आवद्गयकता नहीं है क्योंकि वह सारा जोड ा हुआ धन उड ा देगा। अर्थात् दोनों अवस्थाओं में धन जोड ना व्यर्थ है।
करम में लिखया कंकर तो के करै सिवसंकर।
अर्थ - यदि भाग्य में ही दुख लिखा हो तो ईद्गवर भी कुछ नहीं कर सकता।
थोथो चणो बाजे घणो।
अर्थ - जिनमें गुण नहीें होते वे बढ चढ कर बातें करते हैं।
जनमै जद जा दीख, पूतां रा पग पालणे।
अर्थ - मनुष्य के गुण और अवगुण उसके जन्म से ही दिखाई देने लगते हैं।
अंबर को तारो हाथ सूं कोनी टूटै।
अर्थ - असंभव कार्य को संभव नहीं किया जा सकता।
अक्कलमंद नै इसारो घणो।
अर्थ - बुद्धिमान को इद्गाारा काफी है।
अठी नै पड ै तो कूवौ, वठी ने पड ै तो खाड।
अर्थ - सभी ओर से विपदा का आना।
अलख राजी तो खलक राजी।
अर्थ - जिस पर ईद्गवर प्रसन्न हो, उस पर सारा संसार प्रसन्न रहता है।
आंगली पकड तौ-पकड तौ पूंचो पकड लियो।
अर्थ - ज रा सा आश्रय पाकर पूर्ण आधिपत्य जमा लेना।
आया री समाई पण गया री समाई कोनी।
अर्थ - लाभ कितना ही हो मनुष्य सहन कर लेता है, पर हानि को सहन नहीं कर सकता।
ऊंदरी रा जाया बिल ई खोदै।
अर्थ - परम्परागत कार्य बच्चे स्वतः सीख जाते हैं।
ओछा बोल छाकुर जी ने छाजै।
अर्थ - अभिमान में बोलना ईद्गवर को ही शोभा देता है।
कठै राजा भोज, कठै गांगलो तेली।
अर्थ - दो असमान हस्तियाँ या आकाद्गा पाताल का अंतर।
कथनी सूं करणी दोरी।
अर्थ - कहना सरल लेकिन करना कठिन होता है।
कागा रे तू मळमळ न्हाय, थारी काळस कदे नै जाय।
अर्थ - दुष्ट की दुष्टता तीर्थ और व्रत से दूर नहीं होती।
कुण-कुण नै समझाइये, कुवै भांग पड़ी।
अर्थ - जब सभी अडि यल रूख अपना लें तो किसे समझाया जाए।
कीड ी चाली सासरै, नौ मण सुरमौ सार।
अर्थ - जब गरीब अर्थात् अकिंचन व्यक्ति अधिक आडंबर करे।
गयी भूख नै हेला पाड ै।
अर्थ - जाती हुई भूख को न्यौता देना। जान बूझकर गरीबी को गले लगाना।
गाय न बाछी, नींद आवै आछी।
अर्थ - किसी प्रकार का झंझट न होना।
चोरी रो धन मोरी में जाय।
अर्थ - बेईमानी से कमाया धन शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
ठाकर तो ठिकाणै ई रूड ा लागे।
अर्थ - जिसकी जो जगह होती है, वो वहीं शोभा देता है।
भैंस रे आगे बीण बजाई, गोबर रो ईनाम।
अर्थ - गुण ग्राहक ही गुणों की कद्र कर सकता है।
काव्यधारा - सं. डॉ. राजकुमार सिंह परमार, इंडिया बुक हाऊस, जयपुर
पद्य संचयन - डॉ. मकरन्द भट्ट साक्षी पब्लिद्गिांग हाउस, जयपुर।
गद्य प्रभा - सं. डॉ. राजेद्गा अनुपम, युनिक बुक हाउस, जयपुर।
गद्य संचयन - डॉ. मकरन्द भट्ट, साक्षी पब्लिद्गिांग हाउस, जयपुर। हिन्दी भाषा ज्ञान - डॉ. हरिचरण शर्मा, राजस्थान प्रकाद्गान, जयपुर
हिन्दी भाषा, व्याकरण और रचना - डॉ. अर्जुनतिवारी, विद्गवविद्यालय प्रकाद्गान, वाराणसी।
परिष्कृत हिन्दी व्याकरण - बदरी नाथ कपूर, प्रभात प्रकाद्गान, दिल्ली।
संक्षेपण और पल्लवन - कैलाद्गा चंद्र भाटिया/तुमन सिंह, प्रभात प्रकाद्गान, दिल्ली।
प्रयोजन मूलक हिन्दी : सिद्धांत और प्रयोग - दंगल झाल्टे, वाणी प्रकाद्गान, नई दिल्ली
अनुवाद विज्ञान और संप्रेषण - डॉ. हरिमोहन, तक्षद्गिाला प्रकाद्गान, नई दिल्ली।